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अनेर धुनेर के राम रखवार (69th BPSC Essay)
एक गांव में एक अनाथ बालक रहता था, जिसका नाम मोहन था। माता-पिता के साये के बिना, वह अकेले जीवनयापन कर रहा था। गांव वाले उसकी मदद तो करते थे, लेकिन कोई उसे अपना नहीं मानता था। एक दिन, एक साधु गांव में आया और मोहन को देखकर मुस्कुराया। उसने मोहन से कहा, “बेटा, चिंता मत करो, जिसका कोई नहीं होता, उसका ईश्वर होता है।” यह सुनकर मोहन को पहली बार एहसास हुआ कि वह अकेला नहीं है। साधु के सान्निध्य में उसने सीखा कि आत्मबल और श्रद्धा से जीवन की हर कठिनाई पार की जा सकती है।
मशहूर शायर कृष्ण बिहारी नूर ने कहा है: “जिसका कोई भी नहीं, उसका खुदा है यारो, मैं नहीं कहता, किताबों में लिखा है यारो।”
यह भावार्थ ‘अनेर धुनेर के राम रखवार’ कहावत से मेल खाता है। यह कहावत बिहार के मिथिला क्षेत्र से आई है और यह जीवन की एक गहरी सच्चाई को प्रकट करती है। संसार में कई बार ऐसा होता है कि जब व्यक्ति के पास कोई सहारा नहीं होता, तब प्रकृति या ईश्वर उसकी रक्षा करता है। यह अवधारणा न केवल धार्मिक ग्रंथों में मिलती है, बल्कि समाज के अनेक उदाहरणों से भी प्रमाणित होती है।
सामाजिक व्यवस्था में आश्रयों की बड़ी भूमिका होती है। हर व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में दूसरों पर निर्भर होता है। जैसे, बालक अपने माता-पिता पर निर्भर होता है, वहीं बुजुर्ग अपने बच्चों पर। यह निर्भरता केवल आर्थिक नहीं होती, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक भी होती है। किंतु कभी-कभी परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं कि व्यक्ति को किसी का सहारा नहीं मिलता। ऐसे समय में यह विश्वास कि ईश्वर हर किसी का रखवाला है, उसे संबल देता है।
भारत की प्राचीन परंपरा में भी आश्रय की अवधारणा महत्वपूर्ण रही है। चार आश्रमों—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—के माध्यम से जीवन को एक क्रमबद्ध रूप में देखा गया है। प्रारंभिक दो आश्रम सामाजिक आश्रय पर आधारित होते हैं, जबकि अंतिम दो प्रमुख रूप से आध्यात्मिकता और ईश्वर की ओर उन्मुख होते हैं। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी जैसे दार्शनिकों ने इस अवधारणा को मोक्ष और निर्वाण से जोड़ा। उन्होंने यह सिखाया कि ईश्वर को पाने के लिए केवल विशेष अनुष्ठानों की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि संयम और सात्विकता से भी ईश्वर प्राप्त किया जा सकता है।
भक्तिकाल में इस विचार को और अधिक स्पष्टता मिली। कबीरदास, मीराबाई, तुलसीदास, सूरदास जैसे संतों ने इस सिद्धांत को अपने काव्य के माध्यम से स्थापित किया कि ईश्वर ही सबसे बड़ा आश्रयदाता है। मीराबाई का प्रसिद्ध पद: “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।”
इस भावना को सजीव करता है कि जब मनुष्य का संसार से नाता टूटने लगता है, तब ईश्वर ही उसका सबसे बड़ा सहारा बनता है। आधुनिक समय में भी यह भावना बनी हुई है। अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहाँ बिना किसी सहारे के लोग जीवन में बड़ी ऊँचाइयों तक पहुँचे हैं।
प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब ने कहा है: “न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता, डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।”
यह उद्धरण बताता है कि जब कोई आश्रय नहीं होता, तब भी ईश्वर की उपस्थिति बनी रहती है। यह विश्वास ही व्यक्ति को कठिन परिस्थितियों में आगे बढ़ने की शक्ति देता है।
हालाँकि, यह भी सच है कि हर स्थिति में अकेले ईश्वर पर निर्भर रहना व्यावहारिक नहीं होता। सामाजिक आश्रय भी आवश्यक है। समाज में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सामाजिक संरचनाओं से दूर होने के कारण कठिनाइयों का सामना करते हैं। कुछ लोग संघर्ष करके आगे बढ़ते हैं, जबकि कुछ असफल भी होते हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति अपने विश्वास और आत्मबल को कितना बनाए रखता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।”
अर्थात, “सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरा आश्रय ग्रहण करो, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा।” यह श्लोक स्पष्ट करता है कि जब कोई व्यक्ति पूरी तरह से ईश्वर का आश्रय लेता है, तब उसे जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता।
समाज में यह विचार सदियों से प्रचलित है कि ईश्वर ही अंतिम सहारा है। कई ऐतिहासिक और आधुनिक उदाहरण इसे प्रमाणित करते हैं। इस विचार को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि यह मनुष्य को कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है। लेकिन साथ ही, सामाजिक सहारे का महत्व भी कम नहीं किया जा सकता। आश्रय और विश्वास जीवन के महत्वपूर्ण आधार हैं, जो मनुष्य को संघर्षों में भी टिके रहने की प्रेरणा देते हैं।
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