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बनले के साथी सब केहू ह अउरी बिगड़ले के केहु नाहीं (70th BPSC Essay)
किसी गांव में एक साधु बाबा आए। उनके पास एक तोता था जो सुंदर और चंचल था। बाबा जहाँ भी जाते, वह तोता लोगों को आकर्षित कर लेता। धीरे-धीरे गाँव के बड़े-बड़े लोग बाबा के आस-पास मंडराने लगे। सब उन्हें खाने का न्योता देने लगे, वस्त्र भेंट करने लगे, आदर-सत्कार में जुट गए। साधु बाबा मुस्कुराते और आशीर्वाद देते। एक दिन अचानक वह तोता उड़ गया। अब साधु बाबा वही के वही थे, परन्तु उनके आस-पास का सारा सम्मान, आतिथ्य और भीड़ छूमंतर हो गई। बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, “जब तक चमक थी, सब साथ थे, अब असली मैं रह गया हूँ, तो कोई नहीं।”
यह कहानी हमारे समाज की कटु सच्चाई को उजागर करती है। जब तक व्यक्ति सफलता, पद-प्रतिष्ठा, संपत्ति या रूप के बल पर चमकता है, तब तक सब उसके साथ होते हैं। परन्तु जैसे ही परिस्थितियाँ बदलती हैं, सफलता का सूरज ढलता है, दुनिया का चेहरा भी बदल जाता है। इसी भावना को हमारे लोकजीवन में ‘बनले के साथी सब केहू ह अउरी बिगड़ले के केहु नाहीं’ कहावत में बड़ी सुंदरता से कहा गया है। यानी जब तक सब कुछ अच्छा चलता है, तब तक लोग साथ निभाते हैं, पर जब बुरा समय आता है, तो साथ छोड़ देते हैं।
मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी होता है। वह उन्हीं के साथ रहना पसंद करता है जिनसे उसे कुछ लाभ या सुविधा प्राप्त होती है। जब किसी के पास वैभव, यश, या शक्ति होती है, तो लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, उसके आगे-पीछे घूमते हैं। पर जब वही व्यक्ति संकट में पड़ता है, दरिद्र हो जाता है या अपना प्रभाव खो देता है, तब वही लोग उससे मुँह मोड़ लेते हैं। यह संसार का अटल सत्य है जिसे प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी मोड़ पर अनुभव करता है।
समाज में इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। कोई व्यापारी जब धनवान होता है, तो उसके घर मेहमानों का ताँता लगा रहता है। बड़े-बड़े लोग उससे दोस्ती करना चाहते हैं। परन्तु जब व्यापार में घाटा होता है, दिवाला निकलता है, तो वही लोग उसे पहचानने से भी इनकार कर देते हैं। फिल्मी दुनिया में भी अनेक कलाकारों के जीवन में यह देखा गया है। जब वे लोकप्रिय रहते हैं, तो चारों ओर चमक-दमक रहती है। लेकिन जैसे ही उनकी प्रसिद्धि का सूर्य अस्त होता है, वे अकेले पड़ जाते हैं।
महापुरुषों ने भी इस सत्य को पहचाना और इसकी ओर संकेत किया है। तुलसीदास जी ने लिखा है—
“सज कुलिन गुन ग्यान रतन धनु, जो नाहिं दरिद्र के मीत।”
अर्थात सज्जन, कुलीन, गुणी, विद्वान और धनी लोग भी दरिद्र व्यक्ति के मित्र नहीं बनते। यह कटु सच्चाई है कि दुनिया सफलता की पूजा करती है और विफलता से मुँह मोड़ लेती है।
मनुष्य का स्वभाव अवसरवादी हो गया है। वह उसी समय साथ देता है जब उसे अपनी भलाई दिखती है। जब संकट आता है, तब वह किनारा कर लेता है। मित्रता, संबंध और प्रेम सब आजकल स्वार्थ की बुनियाद पर टिके हुए दिखाई देते हैं। रिश्ते भी तब तक निभाए जाते हैं जब तक उनमें लाभ की उम्मीद होती है। जैसे ही कोई आर्थिक, सामाजिक या व्यक्तिगत संकट आता है, लोग दूर हो जाते हैं।
“बनले के साथी सब केहू ह” का अर्थ है कि जब सब कुछ अच्छा चलता है, तब लोग अपनेपन का दिखावा करते हैं। वे मिठास भरी बातें करते हैं, साथ चलते हैं, मदद करते हैं। परन्तु “बिगड़ले के केहु नाहीं” का तात्पर्य है कि जब हालत बिगड़ जाती है, दुख-दर्द आता है, तो वही लोग मुंह फेर लेते हैं।
कभी-कभी यह अनुभव भी जीवन का बड़ा शिक्षक बन जाता है। जब सब कुछ छिन जाता है, तब व्यक्ति असली और नकली संबंधों की पहचान कर पाता है। कठिनाइयाँ रिश्तों की असली परीक्षा होती हैं। जो लोग दुःख के समय साथ निभाते हैं, वही सच्चे साथी कहलाते हैं। कहा भी गया है—
“सच्चा मित्र वही है जो दुःख में साथ दे।”
रामचरितमानस में भगवान श्रीराम भी वनवास के समय यही अनुभव करते हैं। अयोध्या में रहते समय जिन राजाओं और दरबारियों की भीड़ रहती थी, वे सब एकाएक गायब हो जाते हैं। केवल कुछ गिने-चुने लोग जैसे भरत, लक्ष्मण, शबरी, और निषादराज जैसे भक्तजन ही उनके सच्चे साथी बनते हैं।
इसी प्रकार महाभारत में भी जब पांडवों पर कठिनाइयाँ आती हैं, तो अधिकतर राजाओं ने उनका साथ छोड़ दिया था। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण जैसे मित्र ने हर संकट में उनका साथ निभाया। यह सिद्ध करता है कि संकट के समय जो साथ देता है, वही वास्तव में मित्र कहलाने योग्य होता है।
आज के समय में भी यह कहावत पूरी तरह से लागू होती है। व्यावसायिक जीवन में, राजनीति में, सामाजिक जीवन में — हर जगह स्वार्थ की प्रधानता दिखाई देती है। जो ऊँचे पदों पर हैं, जो संपन्न हैं, उनके आसपास लोगों की भीड़ रहती है। जैसे ही वह पद जाता है या संपत्ति घटती है, वही भीड़ छंट जाती है।
इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह बनते समय भी अपने व्यवहार में विनम्रता बनाए रखे और बिगड़ते समय धैर्य और साहस से काम ले। उसे चाहिए कि वह सच्चे मित्रों की पहचान करे और उन्हीं पर भरोसा करे।
जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। हर सफलता स्थायी नहीं होती, और हर असफलता अंतिम नहीं होती। इसलिए न तो सफलता के समय घमंड करना चाहिए, न असफलता के समय निराश होना चाहिए।
अंततः यही कहा जा सकता है कि ‘बनले के साथी सब केहू ह अउरी बिगड़ले के केहु नाहीं’ — इस कहावत में जीवन का गहरा सत्य छिपा है। जो इसे समय रहते समझ लेता है, वही जीवन में सच्चे संबंधों की परख कर पाता है और एक संतुलित जीवन जीता है।
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