पर्यावरण असन्तुलन सृष्टि का विनाशक है / Environmental Imbalance is the Destroyer of Creation

पर्यावरण असन्तुलन सृष्टि का विनाशक है (70th BPSC Essay)

एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में प्रकृति के साथ तालमेल में जीते हुए लोग सुख-शांति का जीवन व्यतीत करते थे। हरियाली, स्वच्छ जल, शुद्ध वायु और विविध प्रकार के जीव-जंतु उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला, मनुष्य की बढ़ती लालच ने इस प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ दिया। धीरे-धीरे गांव का हरियाली खत्म होने लगी, जल स्रोत सूखने लगे और पशु-पक्षी पलायन करने लगे। आज वही गांव वीरान पड़ा है, और यह कहानी पूरे विश्व का सच बनती जा रही है।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने कहा है –
“प्रकृति को नष्ट करना, अपने भविष्य को नष्ट करना है।”

पर्यावरण वह आधार है जिस पर सम्पूर्ण सृष्टि टिकी हुई है। जल, वायु, भूमि, अग्नि और आकाश – ये पांच तत्व मिलकर जीवन का निर्माण करते हैं। जब इनमें संतुलन बना रहता है, तब पृथ्वी पर जीवन संभव होता है। किंतु जब इन तत्वों का संतुलन बिगड़ता है, तो उसका सीधा प्रभाव समस्त जीव-जगत पर पड़ता है। आज जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, वनों की कटाई, जैव विविधता का विनाश जैसे संकट इस असंतुलन के भयावह परिणाम हैं।

पर्यावरण असंतुलन के मुख्य कारणों में वनों की अंधाधुंध कटाई प्रमुख है। वनों को काटकर कृषि भूमि या नगर बसाए जाते हैं, जिससे प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाते हैं। वृक्षों की कमी से वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है, जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ता है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने भी इस असंतुलन को बढ़ावा दिया है। कल-कारखानों से निकलने वाला धुआं, नदियों में बहाया जाने वाला रासायनिक कचरा, और प्लास्टिक जैसे अविनाशी कचरे ने जल, वायु और भूमि – तीनों को प्रदूषित कर दिया है।

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था –
“पृथ्वी हर किसी की आवश्यकता को पूरा कर सकती है, लेकिन हर किसी के लालच को नहीं।”

मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं से अधिक अपनी इच्छाओं को महत्व दिया, जिसका परिणाम आज हम भोग रहे हैं। नदियाँ सूख रही हैं, बर्फीले पर्वत पिघल रहे हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और प्राकृतिक आपदाएँ – जैसे बाढ़, सूखा, तूफान, भूकंप – तेजी से बढ़ती जा रही हैं। इन आपदाओं से मानव जीवन के साथ-साथ अन्य जीवों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।

वनस्पतियों और जीव-जंतुओं का प्राकृतिक तंत्र भी इस असंतुलन का शिकार हो रहा है। कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और अनेक विलुप्ति के कगार पर हैं। जब किसी पारिस्थितिकी तंत्र से एक प्रजाति समाप्त होती है, तो उसका प्रभाव संपूर्ण तंत्र पर पड़ता है। जैव विविधता का ह्रास पृथ्वी के प्राकृतिक तंत्र को कमजोर कर रहा है, जिससे संपूर्ण सृष्टि खतरे में पड़ गई है।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –
“प्रकृति स्वयं अपना संतुलन बनाए रखती है, किंतु जब उसमें अत्यधिक हस्तक्षेप होता है, तब विनाश अनिवार्य हो जाता है।”

मानव हस्तक्षेप ने प्रकृति के इस संतुलन को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अंधाधुंध दोहन, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग और प्रदूषण ने धरती को संकट में डाल दिया है। यदि समय रहते हमने चेतना नहीं दिखाई, तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर जीवन असंभव हो जाएगा।

पर्यावरण संरक्षण आज मानव जाति की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है। इसके लिए हमें सतत विकास की अवधारणा को अपनाना होगा, जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति इस तरह की जाए कि भविष्य की पीढ़ियाँ भी अपनी आवश्यकताएँ पूरी कर सकें। वनों की रक्षा, जल संरक्षण, पुनर्चक्रण (रिसाइकलिंग) और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं।

हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण की रक्षा केवल सरकारों या संगठनों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर व्यक्ति का नैतिक दायित्व है। छोटे-छोटे प्रयास, जैसे पेड़ लगाना, जल का संरक्षण करना, प्लास्टिक का कम उपयोग करना, और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना, मिलकर बड़े परिवर्तन ला सकते हैं। शिक्षा और जन-जागरूकता के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का संदेश हर घर तक पहुँचाना होगा।

एक प्रसिद्ध चीनी कहावत है –
“एक पेड़ लगाने का सबसे अच्छा समय बीस साल पहले था। दूसरा सबसे अच्छा समय आज है।”

इसलिए, हमें अब देरी नहीं करनी चाहिए। अभी से शुरुआत करनी होगी। यदि हम अपनी जीवनशैली में छोटे-छोटे बदलाव करें, तो बड़ा परिवर्तन संभव है। जैसे-जैसे हम पर्यावरण के साथ सामंजस्य बिठाना सीखेंगे, वैसे-वैसे पृथ्वी फिर से हरी-भरी और जीवनदायिनी बन सकेगी।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम विकास के साथ-साथ प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी समझें। यदि हम केवल भौतिक विकास की दौड़ में पर्यावरण को नजरअंदाज करते रहे, तो यह दौड़ हमें अंततः विनाश की ओर ले जाएगी। संतुलित विकास ही स्थायी विकास का मार्ग है।

मनुष्य और प्रकृति का संबंध अत्यंत गहरा है। मनुष्य प्रकृति का अंश है, उससे पृथक नहीं। यदि प्रकृति का विनाश होता है, तो मनुष्य का भी विनाश निश्चित है। अतः यह आवश्यक है कि हम प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करें और उसे बचाने के लिए सामूहिक प्रयास करें।

अंततः, “पर्यावरण असन्तुलन सृष्टि का विनाशक है” केवल एक कहावत नहीं, बल्कि आज का कड़वा यथार्थ है। यदि हम अपनी सृष्टि को बचाना चाहते हैं, तो पर्यावरण संरक्षण को अपने जीवन का मूलमंत्र बनाना ही होगा। यह कार्य आज से, अभी से और हम सभी से शुरू होना चाहिए।

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