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विश्व-कल्याण आध्यात्मिक चेतना के बिना असम्भव है (70th BPSC Essay)
विश्व-कल्याण आध्यात्मिक चेतना के बिना असम्भव है। यह वाक्य अपने भीतर एक गहरी सच्चाई समेटे हुए है। आज का विश्व जहाँ एक ओर भौतिक प्रगति की ऊँचाइयों को छू रहा है, वहीं दूसरी ओर नैतिक पतन, हिंसा, अशांति और तनाव का भी शिकार बनता जा रहा है। वैज्ञानिक उपलब्धियों और तकनीकी विकास ने मानव जीवन को सुविधाजनक अवश्य बना दिया है, परंतु आत्मा की शांति और संतोष कहीं खो से गए हैं। ऐसी स्थिति में विश्व-कल्याण तभी संभव हो सकता है, जब मानव मात्र अपनी आंतरिक चेतना को जाग्रत करे और आध्यात्मिक मूल्यों को अपने जीवन का आधार बनाए।
आध्यात्मिक चेतना का अर्थ केवल किसी विशेष धर्म का पालन करना नहीं है, बल्कि समस्त जीवों के प्रति करुणा, प्रेम, दया, अहिंसा और सत्य के भाव को हृदय में धारण करना है। जब तक मनुष्य अपने भीतर के लोभ, ईर्ष्या, घृणा और अहंकार को नहीं त्यागेगा, तब तक बाह्य साधनों से चाहे जितनी भी उन्नति हो जाए, सच्चा विश्व-कल्याण संभव नहीं हो सकता। संत कबीरदास ने भी कहा था —
“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।”
अर्थात् अंतःकरण की शुद्धि और मन की विजय ही वास्तविक विजय है, और इसी के माध्यम से समाज और विश्व का कल्याण संभव है।
आज हम देखते हैं कि भौतिक विकास की अंधी दौड़ ने मानव को स्वार्थी और असंवेदनशील बना दिया है। एक देश दूसरे देश पर वर्चस्व स्थापित करना चाहता है, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को नीचे गिराने में लगा है। आपसी प्रेम, सहयोग और सद्भाव का स्थान प्रतियोगिता, द्वेष और हिंसा ने ले लिया है। इस अराजकता के मूल में आध्यात्मिक चेतना का अभाव ही है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करे और यह समझे कि सबमें एक ही चेतना विद्यमान है, तो न तो युद्ध होंगे, न शोषण होगा और न ही समाज में अन्याय व्याप्त रहेगा।
भारत की प्राचीन संस्कृति में विश्व-कल्याण की कामना सदा से रही है। हमारे ऋषि-मुनियों ने “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना को अपनाया। वे जानते थे कि आत्मा का कल्याण समष्टि के कल्याण से जुड़ा हुआ है। यदि समाज पीड़ित रहेगा, तो कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत सुख भोग नहीं सकता। इसी भाव को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी व्यक्त किया, जब उन्होंने कहा — “लोकसंग्रहार्थ एव अपि सम्पश्यन् कर्तव्यम् कर्म।” अर्थात् समाज के कल्याण हेतु भी कर्म करना आवश्यक है।
आध्यात्मिक चेतना जागृत होने पर व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर सम्पूर्ण सृष्टि के हित के लिए कार्य करता है। उसके विचार, आचरण और जीवन में शुचिता और उदारता आ जाती है। वह स्वयं को समस्त ब्रह्मांड के साथ जुड़ा हुआ महसूस करता है। जब ऐसी चेतना व्यक्तियों में जागती है, तब परिवार, समाज, राष्ट्र और अंततः सम्पूर्ण विश्व में शांति, प्रेम और सहयोग का वातावरण निर्मित होता है।
स्वामी विवेकानंद ने भी यही संदेश दिया था कि “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।” उनका लक्ष्य केवल व्यक्तिगत सफलता नहीं था, बल्कि मानवता का कल्याण था। उन्होंने पश्चिमी देशों को भी भारतीय आध्यात्मिकता का महत्व बताया और समझाया कि भौतिक उन्नति के साथ-साथ आत्मिक विकास भी आवश्यक है। आज की दुनिया को स्वामी विवेकानंद के इसी संदेश की आवश्यकता है।
विश्व में अनेक समस्याएँ — आतंकवाद, युद्ध, भुखमरी, असमानता, पर्यावरण संकट — इन्हीं कारणों से उत्पन्न हुई हैं कि हमने केवल बाहरी साधनों पर ध्यान दिया, भीतरी मूल्यों की उपेक्षा की। यदि मानव आध्यात्मिक चेतना को विकसित कर ले, तो वह दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानेगा, प्रकृति का संरक्षण करेगा और शांति व प्रेम के मार्ग पर चलेगा। तभी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना साकार होगी।
महात्मा गांधी ने भी कहा था, “You must be the change you wish to see in the world.” अर्थात् यदि हम विश्व में परिवर्तन चाहते हैं, तो पहले हमें स्वयं को बदलना होगा। यह बदलाव बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक जागरण के माध्यम से संभव है। जब प्रत्येक व्यक्ति सत्य, अहिंसा, प्रेम और सेवा को अपने जीवन का आधार बनाएगा, तभी विश्व-कल्याण की ओर बढ़ा जा सकेगा।
आध्यात्मिक चेतना केवल व्यक्तिगत साधना तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा को स्थान मिलना चाहिए। बच्चों को आरंभ से ही प्रेम, करुणा, सेवा और सहिष्णुता जैसे मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए। शासन प्रणाली में भी नैतिकता का समावेश होना चाहिए, ताकि नेताओं और अधिकारियों में सेवा-भाव और ईमानदारी की भावना प्रबल हो।
मीडिया और सामाजिक मंचों पर भी सकारात्मक विचारों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। आज की दुनिया सूचना क्रांति के युग में है, जहाँ एक संदेश पल भर में लाखों लोगों तक पहुँचता है। यदि इन माध्यमों का उपयोग आध्यात्मिक जागरण के लिए किया जाए, तो बड़े पैमाने पर जागरूकता लाई जा सकती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि विश्व-कल्याण केवल आर्थिक विकास, राजनीतिक सुधार या वैज्ञानिक उन्नति से नहीं हो सकता। उसके लिए आवश्यक है कि मानव अपनी अंतरात्मा की पुकार सुने, अपनी आत्मा के स्तर पर परिवर्तन लाए और समष्टि के कल्याण के लिए कार्य करे। जब हर हृदय में आध्यात्मिक चेतना का दीप जल उठेगा, तभी संपूर्ण विश्व में सच्ची शांति, सुख और समृद्धि का प्रकाश फैलेगा।
अतः निःसंदेह कहा जा सकता है कि विश्व-कल्याण आध्यात्मिक चेतना के बिना असम्भव है।
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