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आगु नाथ ने पाछू पगहा, बिना छान के कूदे गधा (69th BPSC Essay)
एक गाँव में एक युवक रहता था, जिसका नाम माधव था। वह बहुत ही जिज्ञासु और साहसी था, लेकिन बिना सोचे-समझे कोई भी कार्य करने का आदी था। एक दिन उसने गाँव के बुजुर्गों से सुना कि नदी के पार एक सुनहरी गुफा है, जहाँ अद्भुत खजाना छिपा हुआ है। बस, यह सुनते ही वह बिना योजना बनाए, बिना किसी तैयारी के, नदी में कूद पड़ा। गहरी धाराओं में फंसकर जब वह डूबने लगा, तब उसे एहसास हुआ कि उसने बिना सोचे-समझे बहुत बड़ी गलती कर दी। सौभाग्य से, एक मछुआरे ने उसे बचा लिया। जब वह गाँव लौटा, तो बुजुर्गों ने मुस्कराकर कहा, “आगु नाथ नै पाछू पगहा, बिना छान के कूदे गधा।” इस घटना के बाद माधव ने सीखा कि कोई भी कदम उठाने से पहले सोच-विचार और योजना बनाना आवश्यक होता है।
प्रसिद्ध दार्शनिक जीन जैक्स रूसो का कथन है कि- “मनुष्य स्वतंत्र पैदा होकर भी हर समय एक बंधन में जकड़ा हुआ है।”
इसी विचार को स्पष्ट करती हुई कहावत ‘आगु नाथ नै पाछू पगहा, बिना छान के कूदे गधा’ मनुष्य की उस मानसिकता को दर्शाती है, जहाँ वह स्वयं को पूर्ण रूप से स्वतंत्र मानता है, किंतु वास्तव में उसके निर्णय और कार्य कई प्रकार के बंधनों से प्रभावित होते हैं। यह कहावत उस स्थिति को इंगित करती है जब कोई व्यक्ति बिना सोच-विचार के कार्य करता है, बिना दायित्वों और परिणामों की परवाह किए। समाज में इस कहावत का प्रयोग अक्सर उन लोगों के संदर्भ में किया जाता है जो किसी कार्य में रुचि नहीं लेते या फिर लापरवाह होते हैं।
हालाँकि, क्या इस कहावत का अर्थ केवल निकम्मेपन और कामचोरी तक सीमित है? संभवतः नहीं। किसी के पास कार्य न होना, यह सिद्ध नहीं करता कि वह अयोग्य है। कई बार समाज में अवसरों की कमी के कारण भी व्यक्ति किसी कार्य में संलग्न नहीं हो पाता। ग्रामीण समाज में अक्सर ऐसे व्यक्तियों को निकम्मा मान लिया जाता है और उन्हें नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है। यह प्रवृत्ति केवल ग्रामीण समाज तक ही सीमित नहीं है, बल्कि शहरी समाज में भी यह मानसिकता व्याप्त है।
आज के प्रतिस्पर्धी युग में, माता-पिता अपने बच्चों पर डॉक्टर, इंजीनियर या सरकारी नौकरी करने का दबाव डालते हैं, भले ही उनकी रुचि या योग्यता कुछ और हो। इस मानसिकता के कारण कई युवा असंतोष और तनाव का शिकार हो जाते हैं। उदाहरणस्वरूप, कोटा जैसे शहरों में इंजीनियरिंग और मेडिकल की परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों की आत्महत्याओं की घटनाएँ इस सामाजिक दबाव को दर्शाती हैं। यह मानसिकता केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि पूरे समाज की सोच को प्रतिबिंबित करती है, जहाँ स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच संतुलन स्थापित नहीं हो पाता। जैसा कि एलेनोर रूज़वेल्ट ने कहा है, “स्वतंत्रता का सही अर्थ ज़िम्मेदारी है, इसलिए अधिकतर लोग इससे डरते हैं।”
स्वतंत्रता केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं है। आधुनिकता के साथ हमने जीवों के अधिकारों को भी महत्व देना शुरू किया है, लेकिन फिर भी पालतू और वन्य जीवों को मनोरंजन और प्रयोगों के लिए कैद कर दिया जाता है। असल में, स्वच्छंदता का सच्चा रूप प्रकृति और जीवों में ही देखने को मिलता है। जंगलों में रहने वाले जीव स्वच्छंद होते हैं, लेकिन मनुष्यों ने उन्हें अपने हितों के लिए सीमित कर दिया है। महात्मा गांधी ने कहा था, “किसी राष्ट्र की महानता और उसकी नैतिक प्रगति को इस बात से आंका जा सकता है कि वह अपने पशुओं के साथ कैसा व्यवहार करता है।”
स्वतंत्रता का वास्तविक मूल्य वही समझ सकता है जिसने परतंत्रता का अनुभव किया हो। भारत ने लगभग 200 वर्षों तक ब्रिटिश शासन का दमन सहा और अंततः स्वतंत्रता प्राप्त की। इस संघर्ष ने हमें यह सिखाया कि स्वतंत्रता का सही उपयोग किया जाए तो समाज उन्नति कर सकता है। संविधान ने हमें अभिव्यक्ति, विचार और जीवन जीने की स्वतंत्रता दी, जिससे भारत वैश्विक स्तर पर एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरा। स्वतंत्रता की यह अवधारणा केवल राजनीतिक रूप से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में भी उतनी ही आवश्यक है। जैसा कि नेल्सन मंडेला ने कहा है, “स्वतंत्रता का स्वाद चखने वाला व्यक्ति कभी भी गुलामी को स्वीकार नहीं कर सकता।”
लेकिन क्या हमने इस स्वतंत्रता का सही उपयोग किया? आज भी समाज में कई रूढ़ियाँ मौजूद हैं, जो कुछ वर्गों को उनके अधिकारों से वंचित करती हैं। विचारों की स्वतंत्रता होते हुए भी कुछ सामाजिक बंधनों के कारण व्यक्तियों को अपनी वास्तविक क्षमता का उपयोग करने का अवसर नहीं मिलता। महिलाओं, दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के संदर्भ में देखा जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता के बावजूद सामाजिक बंधन आज भी उनकी उन्नति में बाधा डाल रहे हैं।
यदि इस कहावत को व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो यह समाज के लिए एक चेतावनी भी हो सकती है। बिना सोचे-समझे स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने से समाज में अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है, लेकिन यदि व्यक्ति और समाज स्वतंत्रता की सही अवधारणा को आत्मसात् करें, तो यह विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
हमें स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच संतुलन स्थापित करना होगा, ताकि समाज उन्नति की ओर बढ़ सके। स्वतंत्रता का अर्थ अराजकता नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें व्यक्ति अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग रहे। जब तक समाज में स्वतंत्रता के सही मायने नहीं समझे जाते, तब तक इस कहावत की प्रासंगिकता बनी रहेगी।
अतः यह आवश्यक है कि समाज व्यक्तियों को उनकी क्षमताओं के अनुरूप अवसर प्रदान करे, उन्हें उनकी रुचि के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता दे, और अनावश्यक सामाजिक दबावों से मुक्त करे। तभी स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच संतुलन स्थापित हो सकेगा, और समाज एक सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ पाएगा।
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