बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर | Bapak Nam Sag-Pat Aa Betak Nam Paror

बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर (70th BPSC Essay)

ग्रामीण जीवन में एक प्रसिद्ध कहावत है — “बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर”। इस कहावत का अर्थ है कि पिता को साधारण सब्ज़ियों (जैसे साग-पात) के समान साधारण समझा जाए, जबकि बेटा खुद को परोर (परवल जैसी विशिष्ट सब्ज़ी) के समान महत्त्वपूर्ण माने। यह कहावत समाज में बढ़ते दिखावे और मूल्यों में आई गिरावट पर गहरा व्यंग्य करती है।

किसी गाँव में एक साधारण किसान रहते थे। वे मेहनत और ईमानदारी से जीवन यापन करते थे। उनका बेटा पढ़-लिखकर शहर चला गया और वहाँ नौकरी करने लगा। धीरे-धीरे उसे अपने नए जीवन पर अभिमान होने लगा। जब वह गाँव लौटता, तो वह खुद को बड़ा अधिकारी समझता और पिता को तुच्छ किसान मानने लगता। गाँव के एक बुजुर्ग ने तब यह टिप्पणी की — “बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर।” यानी बेटा खुद को परोर (एक सम्मानित सब्जी) जैसा महत्वपूर्ण मान रहा है और बाप को साधारण साग-पात समझ रहा है।

यह कहावत केवल एक परिवार की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे समाज का एक चित्रण है। अक्सर देखा जाता है कि जब कोई व्यक्ति थोड़ा सा धन या प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है, तो वह अपने साधारण परिवार, गाँव और संस्कारों को तुच्छ समझने लगता है। वह भूल जाता है कि उसी साधारण परिवेश ने उसे बड़ा बनाया है।

भारतीय संस्कृति में पितृभक्ति, गुरु सम्मान और बड़ों के प्रति आदर का विशेष स्थान रहा है। “मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः” जैसे वाक्य हमारे संस्कारों की नींव हैं। लेकिन जब बेटा अपने पिता को साग-पात समझे और खुद को परोर जैसा ऊँचा मानने लगे, तो यह न केवल परिवार के लिए, बल्कि समाज के लिए भी चिंताजनक है।

“साग-पात” प्रतीक है साधारण जीवन का — जो आवश्यक है, सरल है, और बिना दिखावे के जीवन को पोषित करता है। वहीं “परोर” (परवल) गाँवों में एक विशेष सब्जी मानी जाती है, जो स्वादिष्ट मानी जाती है और अक्सर खास अवसरों पर पकाई जाती है। इस तुलना में बेटा खुद को विशिष्ट और कीमती मानता है, जबकि पिता को साधारण। यह सोच ही इस कहावत का मूल व्यंग्य है।

महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में इस विषय को कई बार उठाया है। ‘गोदान’ में होरी का बेटा गोबर जब शहर जाता है, तो वह भी गाँव के सीधे-साधे जीवन को तुच्छ समझने लगता है। परंतु अंततः उसे एहसास होता है कि उसकी जड़ें वहीं हैं जहाँ उसका बचपन बीता था।

समाजशास्त्र के दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो जब व्यक्ति आर्थिक और सामाजिक उन्नति करता है, तब कई बार वह अपने मूल्यों से दूर हो जाता है। परंतु सही विकास वही है जिसमें व्यक्ति अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है।

डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का जीवन इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे अपने साधारण परिवार और बचपन के संघर्षों को कभी नहीं भूले। उन्होंने हमेशा अपने माता-पिता का आदर किया और उन्हें अपनी सफलता का आधार माना।

“बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर” कहावत इस बात की शिक्षा देती है कि जो बेटा अपने पिता के संघर्ष और साधारणता को समझता है, वही जीवन में सचमुच ऊँचाइयाँ छूता है। जबकि जो पिता को साधारण समझ कर खुद को विशिष्ट माने, वह अहंकार में डूबकर अपने जीवन का संतुलन खो देता है।

हमारे गाँवों में आज भी बड़ों का आशीर्वाद सबसे बड़ी पूंजी मानी जाती है। बेटा चाहे डॉक्टर बने, इंजीनियर बने, या बड़ा अफसर बने — अगर वह अपने माता-पिता को सादर प्रणाम करता है, उनकी सेवा करता है, तभी वह समाज में सच्चा सम्मान पाता है।

यह कहावत केवल परिवार के बीच रिश्तों की बात नहीं करती, बल्कि आज के बदलते समाज में भी उतनी ही प्रासंगिक है। नए ज़माने के लोग अक्सर पुराने मूल्यों को भूलते जा रहे हैं। ऐसे में यह कहावत हमें याद दिलाती है कि वास्तविक उन्नति विनम्रता और जड़ों के प्रति कृतज्ञता में ही है।

परवर (परोर) चाहे स्वादिष्ट हो, पर बिना साधारण साग-पात के भोजन अधूरा है। उसी तरह बेटा चाहे जितना भी बड़ा बन जाए, उसका अस्तित्व अपने पिता के बलिदानों और संघर्षों पर आधारित है। यह बात जिसने समझ ली, वह जीवन में कभी हारता नहीं है।

निष्कर्षतः, “बापक नाम साग-पात आ बेटाक नाम परोर” केवल एक व्यंग्यात्मक कहावत नहीं है, बल्कि यह जीवन का गहरा सत्य है। यह सिखाती है कि व्यक्ति को अपने साधारण मूल्यों का सम्मान करना चाहिए, अपने माता-पिता के संघर्षों को नमन करना चाहिए और कभी भी अभिमान में बहकर अपने जड़ों को नहीं भूलना चाहिए। विनम्रता और कृतज्ञता ही सच्चे जीवन की पहचान हैं।

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