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बिन समाज के बोली हो सकेला का, बिन बोली (भाषा) समाज हो सकेला का (69th BPSC Essay)
“भाषा किसी समाज की आत्मा होती है, उसके बिना समाज गूंगा और असहाय हो जाता है।” – महात्मा गांधी
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और समाज की संरचना का सबसे महत्वपूर्ण आधार भाषा या बोली होती है। समाज की कल्पना बिना भाषा के नहीं की जा सकती, और भाषा का भी अस्तित्व समाज के बिना अधूरा है। भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम नहीं है, बल्कि यह संस्कृति, परंपराओं और इतिहास की संवाहक भी होती है। जब तक समाज में परस्पर संवाद नहीं होगा, तब तक कोई भी सभ्यता विकसित नहीं हो सकती। इसी प्रकार, बिना भाषा के सामाजिक जीवन को संगठित और संरचित करना असंभव है।
“जिस समाज की भाषा समृद्ध होती है, वह समाज भी समृद्ध होता है।” – प्रेमचंद
भाषा और समाज का संबंध परस्पर पूरक है। मनुष्य जब जन्म लेता है, तब वह किसी भाषा को नहीं जानता, लेकिन समाज के संपर्क में आते ही वह भाषा सीखता है। उसके व्यवहार, सोचने और समझने की प्रक्रिया को समाज में प्रचलित भाषा प्रभावित करती है। भाषा के माध्यम से ही मनुष्य अपने अनुभवों, विचारों और भावनाओं को व्यक्त करता है। यही भाषा समाज की पहचान भी बनती है। उदाहरणस्वरूप, भारत में विभिन्न भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं, और प्रत्येक भाषा एक विशिष्ट समुदाय की पहचान को दर्शाती है।
भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में भाषा की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है। यहाँ के हर क्षेत्र में अलग-अलग भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, और ये भाषाएँ केवल संचार का माध्यम ही नहीं हैं, बल्कि सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण अंग भी हैं। भारतीय समाज में भाषा का इतना प्रभाव है कि विभिन्न राज्यों का गठन भी भाषाई आधार पर किया गया है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, और पंजाब जैसे राज्यों का निर्माण मुख्यतः भाषाई आधार पर हुआ। यह दर्शाता है कि समाज और भाषा का कितना गहरा संबंध है।
“भाषा केवल संवाद नहीं, बल्कि एक संस्कृति की आत्मा होती है।” – सुभाष चंद्र बोस
भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती, बल्कि यह समाज की संस्कृति और परंपराओं को भी संरक्षित रखती है। प्रत्येक भाषा में लोकगीत, लोककथाएँ, मुहावरे और कहावतें होती हैं, जो उस समाज की जीवनशैली और सोच को दर्शाती हैं। उदाहरण के लिए, हिंदी भाषा में ‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ कहावत प्रचलित है, जो भारत की भाषाई विविधता को दर्शाती है। समाज भाषा को समृद्ध करता है, और समय के साथ भाषा भी समाज की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित होती रहती है।
भाषा और समाज का यह संबंध केवल भारत तक सीमित नहीं है। विश्वभर में प्रत्येक समाज अपनी भाषा के माध्यम से ही अपनी पहचान बनाता है। फ्रांस में फ्रेंच, जर्मनी में जर्मन, जापान में जापानी भाषा समाज की पहचान के रूप में स्थापित हैं। इन भाषाओं ने न केवल सामाजिक संरचना को प्रभावित किया, बल्कि इन देशों की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत किया है।
“यदि अपनी भाषा नहीं रहेगी, तो अपनी पहचान भी खो जाएगी।” – हजारीप्रसाद द्विवेदी
समाज में भाषा के बिना समुचित विकास संभव नहीं है। जब तक कोई समाज अपने विचारों, भावनाओं और ज्ञान को व्यक्त नहीं कर सकता, तब तक उसकी उन्नति संभव नहीं होती। भाषा शिक्षा का प्रमुख साधन है, और शिक्षा ही समाज को प्रगति की ओर ले जाती है। यदि समाज में भाषा का अभाव होगा, तो ज्ञान का हस्तांतरण संभव नहीं होगा, और समाज ठहराव की स्थिति में आ जाएगा।
भाषा का समाज पर सकारात्मक प्रभाव तो पड़ता ही है, लेकिन कई बार भाषा विभाजन का कारण भी बन जाती है। भारत में ही कई भाषाई विवाद देखे गए हैं, जहाँ किसी क्षेत्र विशेष की भाषा को अधिक महत्व देने के कारण अन्य भाषाओं के बोलने वालों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। भाषाई अलगाव की भावना कभी-कभी सामाजिक एकता को भी कमजोर कर सकती है। इसी कारण भारत के संविधान में सभी प्रमुख भाषाओं को आठवीं अनुसूची में स्थान देकर उन्हें मान्यता दी गई, जिससे सभी भाषाओं को सम्मान मिल सके और कोई भाषा उपेक्षित न हो।
“जिस राष्ट्र की अपनी कोई भाषा नहीं होती, वह राष्ट्र सदा पराधीन रहेगा।” – अटल बिहारी वाजपेयी
भाषा और समाज का यह संबंध न केवल वर्तमान में बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण रहा है। प्राचीनकाल में संस्कृत, पाली, और प्राकृत जैसी भाषाएँ समाज में प्रचलित थीं और उन्हीं के माध्यम से भारतीय संस्कृति और दर्शन का प्रचार-प्रसार हुआ। बौद्ध और जैन ग्रंथों की भाषा पाली और प्राकृत थी, जिससे इन विचारधाराओं को समाज में व्यापक स्वीकार्यता मिली। इसी प्रकार, मुगल काल में फारसी का प्रभाव बढ़ा और अंग्रेजी शासन के दौरान अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व स्थापित हुआ। यह दर्शाता है कि भाषा समाज के अनुसार बदलती है और समाज भी भाषा के अनुसार ढलता है।
आज के आधुनिक युग में भी भाषा और समाज का संबंध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तकनीकी प्रगति के साथ भाषा में नए-नए शब्द जुड़ रहे हैं, जो समाज की बदलती आवश्यकताओं को दर्शाते हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में ‘ईमेल,’ ‘वेबसाइट,’ ‘ऑनलाइन मीटिंग’ जैसे शब्द आम भाषा का हिस्सा बन चुके हैं। यह भाषा और समाज के आपसी संबंध का ही प्रमाण है कि जैसे-जैसे समाज विकसित होता है, भाषा भी परिवर्तित होती जाती है।
“भाषा एक पुल की तरह होती है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान को जोड़ती है।” – डॉ. राम मनोहर लोहिया
भाषा समाज का दर्पण होती है। किसी भी समाज की रीति-नीतियाँ, परंपराएँ, विचारधारा और व्यवहार भाषा में परिलक्षित होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयोग होने वाली बोलियों में वहाँ की संस्कृति की झलक मिलती है, तो शहरी क्षेत्रों की भाषा में आधुनिकता और प्रगतिशीलता का प्रभाव देखा जा सकता है। भाषा और समाज का यह संबंध इतना गहरा है कि यदि किसी समाज की भाषा विलुप्त हो जाए, तो उस समाज की संस्कृति भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है।
अतः यह स्पष्ट है कि भाषा और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना समाज के भाषा का विकास संभव नहीं, और बिना भाषा के समाज की कल्पना अधूरी है। भाषा न केवल संचार का माध्यम है, बल्कि यह समाज को जोड़ने, उसकी पहचान बनाने और उसकी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने का कार्य भी करती है।
“भाषा की रक्षा ही संस्कृति की रक्षा है, और संस्कृति की रक्षा ही समाज की उन्नति है।” – राहुल सांकृत्यायन
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