धर्म के बिना विज्ञान नंगर छै, विज्ञान के बिना धर्म अंधकार छै। (Dharma ke bina vigyan nangar chhai, vigyan ke bina dharma aanhar chhai)

धर्म के बिना विज्ञान नंगर छै, विज्ञान के बिना धर्म अंधकार छै। (68th BPSC Essay)

अल्बर्ट आइंस्टीन का यह कथन कि “धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है” विज्ञान और धर्म के बीच परस्पर संबंध को दर्शाता है। यह कथन यह इंगित करता है कि विज्ञान और धर्म विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। वर्तमान समय में विज्ञान और धर्म को लेकर समाज में भिन्न-भिन्न मत देखे जाते हैं। कुछ लोग विज्ञान को धर्म का विरोधी मानते हैं, जबकि कुछ लोग धर्म को विज्ञान से श्रेष्ठ मानते हैं। यह प्रश्न उठता है कि विज्ञान और धर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व है और क्या ये वास्तव में एक-दूसरे के विरोधी हैं या इनमें कोई परस्पर संबंध है।

धर्म को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि प्राचीन ग्रंथों में ‘धर्म’ शब्द किसी संप्रदाय या विशिष्ट आस्था से नहीं, बल्कि कर्तव्य और नैतिकता से जुड़ा हुआ था। धर्म का संबंध मानव की आस्था और विश्वास से होता है, जो व्यक्ति के आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों को निर्धारित करता है। वहीं, विज्ञान मानव जीवन को सरल और उन्नत बनाने के लिए प्रयोग और अनुसंधान पर आधारित होता है। विज्ञान का कार्य भौतिक जगत को समझना और नए आविष्कारों के माध्यम से मानव समाज के विकास में योगदान देना है। विज्ञान का उद्देश्य हमारे जीवन को सहज और सुविधाजनक बनाना है।

विज्ञान और धर्म दोनों सत्य की खोज में सहायक होते हैं, लेकिन इनके कार्य करने के तरीके अलग-अलग होते हैं। विज्ञान भौतिक जगत की खोज करता है, जबकि धर्म मानवीय मूल्यों और नैतिकता से संबंधित होता है। धर्म के बिना विज्ञान अपने मूल उद्देश्य से भटक सकता है, क्योंकि नैतिकता के अभाव में वैज्ञानिक अनुसंधान विनाशकारी रूप ले सकते हैं। परमाणु बम, जैविक हथियार और पर्यावरणीय क्षति के उदाहरण इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यदि विज्ञान नैतिकता से रहित हो जाए तो यह संहारक सिद्ध हो सकता है। इसी संदर्भ में महात्मा गांधी ने ‘मानवताविहीन विज्ञान’ को सात सामाजिक पापों में से एक माना था।

इसके विपरीत, यदि धर्म पर अंधविश्वास हावी हो जाए और वह विज्ञान के विकास को अवरुद्ध करे, तो यह समाज के लिए बाधक बन सकता है। इतिहास में कई बार ऐसा देखा गया है कि अंधविश्वास और रूढ़िवादिता के कारण वैज्ञानिक आविष्कारों को अस्वीकार किया गया। मध्यकालीन भारत में समुद्र यात्रा को अशुभ माना जाता था, जिसके कारण भारत भौगोलिक अन्वेषण में पश्चिमी देशों की तुलना में पिछड़ गया। इसी प्रकार, जातिप्रथा और छुआछूत जैसी कुप्रथाएँ धर्म के नाम पर स्थापित हुईं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। स्त्रियों को पुरुषों से कमजोर और अधीनस्थ मानने की मानसिकता भी धार्मिक मान्यताओं से प्रेरित थी, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं था।

अगर धर्म और विज्ञान में संतुलन बना रहे तो यह मानव समाज के लिए अत्यंत लाभकारी हो सकता है। विज्ञान द्वारा विकसित परमाणु ऊर्जा का उपयोग विध्वंस के बजाय ऊर्जा सुरक्षा के लिए किया जा सकता है। इसी प्रकार, जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग जैव-विविधता के संरक्षण और खाद्य सुरक्षा के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार, यदि विज्ञान को धर्म के नैतिक मूल्यों के साथ संतुलित किया जाए, तो यह मानवता और प्रकृति दोनों के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है।

भारत में प्राचीन काल से ही धर्म और विज्ञान का समन्वय देखने को मिलता है। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में धार्मिक और वैज्ञानिक विचारों का अद्भुत मेल देखा जा सकता है। आधुनिक समय में भी यह आवश्यक है कि विज्ञान और धर्म को परस्पर विरोधी मानने के बजाय एक-दूसरे के पूरक के रूप में देखा जाए। धर्म और विज्ञान का समन्वय ही विश्व-शांति और मानव-कल्याण को सुनिश्चित कर सकता है। वैज्ञानिक खोजें जहाँ भौतिक जगत के रहस्यों को उजागर करती हैं, वहीं धर्म मानव को नैतिकता और मूल्यों की शिक्षा देकर समाज को संतुलित बनाए रखने में सहायता करता है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का यह कथन अत्यंत प्रासंगिक है कि “जहाँ विज्ञान खत्म होता है, वहाँ से अध्यात्म आरंभ होता है।”

“जहाँ विज्ञान खत्म होता है, वहाँ से अध्यात्म आरंभ होता है।” – स्वामी विवेकानंद

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