धोबियक कुकुर ने घर के ने घाट के (Dhobiyak kukur nen ghar ke ne ghat ke)

धोबियक कुकुर ने घर के ने घाट के (69th BPSC Essay)

“जिसने समय को समझ लिया, उसने जीवन को समझ लिया।” – कबीरदास

यह कहावत भारतीय समाज में प्रचलित एक महत्वपूर्ण कहावत है, जिसका प्रयोग ऐसे व्यक्ति या स्थिति के लिए किया जाता है, जिसमें व्यक्ति किसी स्थान या समूह में अपनी उपयोगिता खो देता है। इस कहावत का उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा उनकी रचना ‘कवितावली’ में किया गया था, जिसकी रचना 16वीं शताब्दी के अंत में अथवा 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में की गई थी। तुलसीदास जी इस संदर्भ में लिखते हैं— “हे श्रीरामजी, यह सब आप होके बनाए बनी है, नहीं तो धोबियों के कुत्ते के समान मैं, न घर का था और न घाट का ही।”

समाज में यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति के कारण अपनी पहचान और महत्व खो देता है। इस कहावत का अर्थ यह भी है कि व्यक्ति कहीं भी पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जाता। महात्मा गांधी ने भी कहा था, “खुद को खोजने का सबसे अच्छा तरीका है, खुद को दूसरों की सेवा में खो देना।” जब व्यक्ति अपनी उपयोगिता को पहचानने में असफल हो जाता है, तो वह न इधर का रहता है और न उधर का।

प्राचीन काल में मनुष्य जानवरों का पालन-पोषण करता था, लेकिन उन्हें बंधक बनाकर नहीं रखता था। जानवरों को भी यह स्वतंत्रता थी कि वे अपने स्वामी का चुनाव करें। धोबी आमतौर पर गधे का उपयोग अपने कार्यों के लिए करता था, क्योंकि गधा भारी बोझ उठा सकता था और रास्ता नहीं भूलता था। दूसरी ओर, कुत्ता रखवाली में माहिर होता है, लेकिन धोबी के पास धन-संपत्ति नहीं होती थी, जिससे उसकी रखवाली की जरूरत नहीं पड़ती थी। इस प्रकार, यदि कोई कुत्ता धोबी के साथ रहने लगता था, तो उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती थी। वह न घर का रह जाता था और न घाट का। इसी संदर्भ में रहीमदास जी कहते हैं—

“रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि। जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तरवारि।”

यह हमें सिखाता है कि प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति का अपना स्थान होता है।

इस कहावत का महत्व केवल सामाजिक संदर्भ में ही नहीं, बल्कि आर्थिक, राजनीतिक, और व्यक्तिगत जीवन में भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति अपनी जड़ों और पहचान को छोड़कर किसी नए स्थान पर जाता है, लेकिन वहां भी उसे पूरी स्वीकृति नहीं मिलती, तो उसकी स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है। इस संदर्भ में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था— “जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।” यह दर्शाता है कि जो व्यक्ति किसी निश्चित दिशा में अपनी स्थिति नहीं बना पाता, उसका अस्तित्व संकट में पड़ जाता है।

आधुनिक संदर्भ में देखें तो बेरोजगारी, जलवायु परिवर्तन, और वैश्विक राजनीति में भी इस कहावत की प्रासंगिकता बनी हुई है। भारत में स्नातक युवाओं के लिए रोजगार के सीमित अवसर हैं, और कई बार उन्हें उनके कौशल के अनुरूप कार्य नहीं मिल पाता। वे इस स्थिति में फंस जाते हैं कि न वे शिक्षा के क्षेत्र में वापस जा सकते हैं, न ही उन्हें उद्योगों में अवसर मिलते हैं। यही स्थिति पर्यावरणीय संकट को लेकर भी है। विश्व के कई बड़े नेता जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने के लिए विशाल सम्मेलनों का आयोजन करते हैं, लेकिन ठोस नीतियों पर अमल नहीं होता। इस पर कबीरदास जी ने कहा था— “चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।” यह स्थिति बताती है कि जब व्यक्ति या समाज अनिर्णय की स्थिति में फंस जाता है, तो उसका कोई ठोस समाधान नहीं निकलता।

इतिहास में भी कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां राजा-महाराजाओं, योद्धाओं, और समाज सुधारकों को ऐसे ही द्वंद्व का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिए, महाराणा प्रताप को भी सामाजिक और राजनीतिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। उनके पास विकल्प था कि वे मुगलों के साथ संधि कर लें, लेकिन उन्होंने संघर्ष का मार्ग चुना। इसी संदर्भ में सुभाष चंद्र बोस का कथन उपयुक्त बैठता है— “अगर संघर्ष न रहे, किसी भी डर का सामना न करना पड़े, तो जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है।” इससे स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति संघर्ष से बचना चाहता है, वह कहीं का नहीं रह जाता।

महाभारत में भी ऐसी कई घटनाएँ हैं, जिनमें योद्धाओं और नायकों को दुविधा का सामना करना पड़ा। अर्जुन युद्ध क्षेत्र में अपने ही संबंधियों के खिलाफ लड़ने में असमर्थ थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश देकर यह समझाया कि कर्तव्य पालन से बढ़कर कुछ भी नहीं होता। इसी संदर्भ में तुलसीदास जी ने लिखा— “परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।” यह दर्शाता है कि जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाता है, तब वह समाज में अपनी उपयोगिता खो देता है।

निष्कर्षतः, ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’ केवल एक कहावत नहीं, बल्कि यह जीवन का महत्वपूर्ण सत्य है। यह उन परिस्थितियों की ओर इंगित करता है, जब व्यक्ति अपनी पहचान, अस्तित्व और महत्व को खो देता है। अतः व्यक्ति को सदैव अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति सचेत रहना चाहिए, ताकि वह ऐसी स्थिति में न पहुंचे, जहाँ उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाए। जैसा कि विवेकानंद ने कहा था— “उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको मत।” इससे स्पष्ट होता है कि यदि व्यक्ति अपने उद्देश्य पर केंद्रित रहे और सही दिशा में कार्य करे, तो वह कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं पहुंचेगा, जहाँ उसकी स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो जाए।

“कर्म ही जीवन की सबसे बड़ी साधना है।” – स्वामी विवेकानंद

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