कृषि व्यवस्था में सुधार कर देश के ग्रामीण अर्थतंत्र को सशक्त बना सकते हैं। (Improving the Agricultural System Can Support the Rural Economy of the Nation)

कृषि व्यवस्था में सुधार कर देश के ग्रामीण अर्थतंत्र को सशक्त बना सकते हैं। (69th BPSC)

“जब तक किसानों के चेहरे पर मुस्कान नहीं आती, तब तक देश प्रगति नहीं कर सकता।” – लाल बहादुर शास्त्री

गांधी जी का मानना था कि कृषि और ग्राम्य जीवन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और गाँवों का जीवन स्तर सुधारने के लिये खेती की बेहतरी जरूरी है। गौरतलब है कि कृषि, भारतीय अर्थव्यवस्था विशेषरूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। भारत में कृषि केवल आय का स्रोत न होकर जीवन जीने का एक तरीका है। कृषि बहुत लंबे समय से हमारी संस्कृति का हिस्सा रही है। यह क्षेत्र न केवल भारत की सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में लगभग 15% का योगदान करता है, बल्कि भारत की लगभग आधी जनसंख्या रोजगार के लिये कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। आँकड़ों की मानें तो देश की लगभग 70% आबादी प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः कृषि एवं संबद्ध कार्य में संलग्न है। कृषि कार्यों में फसल उत्पादन के साथ-साथ फल, सब्जी एवं फूलों की खेती, पशुधन उत्पादन, मत्स्य पालन, कृषि वानिकी और वानिकी संबंधी गतिविधियाँ शामिल होती हैं। यह क्षेत्र न केवल संपूर्ण आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करता है, बल्कि यह विनिर्माण उद्योगों के लिये प्राथमिक उत्पाद भी उपलब्ध करवाता है।

इसे विडंबना हो कहा जाएगा कि एक तरफ भारत वर्ष 2027-28 तक 5 ट्रिलियन डॉलर का आकार ग्रहण कर दुनिया को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ ‘भारतीय अर्थव्यवस्था की रोढ़’ कही जाने वाली कृषि को स्थिति बद-से-बदतर होती जा रही है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कृषि पर निर्भर देश के करोड़ों लोग आज भी बेहद अभावों में जीवन जीने को विवश हैं और कई बार ये कृषि के माध्यम से अपनी बुनियादी जरूरतें भी नहीं पूरी कर पाते हैं।

वर्तमान में भारतीय कृषि व्यवस्था कई समस्यायों से जूझ रही है. इसमें सर्वप्रमुख है- ज्यादातर किसानों के पास कृषि में निवेश के लिये पूंजी का अभाव या कमी है। ज्ञातव्य है कि आज भी देश के ज्यादातर किसानों को व्यावहारिक रूप में संस्थागत ऋण सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता। कई बार किसानों के पास इतनी भी पूंजी नहीं होती कि वे बीज, खाद, सिंचाई जैसी बुनियादी चीजों का भी प्रबंध कर सकें। पूंजी के अभाव में किसान को साहूकारों, महाजनों या जमीदारों से ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेने के लिये मजबूर होना पड़‌ता है, जिससे उसकी समस्याएँ कम होने की बजाय बढ़ जाती है।

ध्यातव्य है कि भारतीय कृषि अपनी सिंचाई के लिये मुख्यतः मानसून पर निर्भर है, ऐसे में भारत के अधिकांश हिस्सों में सिंचाई सुविधाओं का अभाव देखा जाता है। निजी तौर पर सिंचाई सुविधाओं का प्रबंध वहीं किसान कर पाते हैं, जिनके पास पर्याप्त पूंजी उपलब्ध है, क्योंकि सिंचाई उपकरणों (जैसे ट्यूबवेल) स्थापित करने की लागत इतनी अधिक होती है कि गरीब किसानों के लिये उसे वहन कर पाना संभव नहीं है। ऊपर से जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की अनिश्चितता और अनियमितता में वृद्धि होती है, जो समस्या को और जटिल बना देता है। इतना ही नहीं राज्यों की कृषि उत्पाद विपणन समितियों (APMC) में उपस्थित मध्यस्थों या बिचौलियों की श्रृंखला की मौजूदगी के कारण किसानों को उनकी उपज के लिये पर्याप्त कीमत नहीं मिल पाती। कभी-कभी तो किसानों को अपनी उपज को औने-पौने दामों में बेचने के लिये मजबूर होना पड़ता है। कुछ अन्य समस्याओं में कृषि में आधुनिक उपकरणों और तकनीकों का प्रयोग न कर पाना, परिवहन सुविधाओं की कमी, भंडारण सुविधाओं में कमी, परिवहन की सुविधाओं में कमी, जलवायु परिवर्तन तथा मिट्टी की गुणवत्ता में हास के कारण कृषि उपज में कमी आती है, जो कभी-कभार अकाल का कारण बनती है। अकाल के दौरान उपजी मनोदशा को ‘नागार्जुन’ द्वारा लिखित पक्तियों द्वारा बखूबी व्यक्त किया जा सकता है:

“कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास।

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त।, कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद, धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद।

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद, कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।”

ऐसा नहीं है कि हमारी सरकारें आँख मूँद कर बैठी हुई हैं। समय-समय पर राज्यों की सरकारों के साथ-साथ केंद्र सरकार ने भी कई सुधारात्मक प्रयास किये हैं। फरवरी, 2004 में ‘राष्ट्रीय किसान आयोग’ का गठन किया गया था। इस आयोग को सिफारिशों के आधार पर किसानों के लिये राष्ट्रीय नीति मंजूर की गई, जिसका उद्देश्य कृषि क्षेत्र की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के साथ-साथ किसानों की निवल आय में भी वृद्धि करना था। किसानों को महाजनों और साहूकारों द्वारा फैलाए गए ऋण-जाल में उलझने से बचाने तथा संस्थागत वित्त तक आसान व सुविधाजनक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये ‘किसान क्रेडिट कार्ड योजना’ क्रियान्वित की जा रही है। किसानों की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से ‘पीएम-किसान सम्मान निधि योजना’ भी क्रियान्वित की जा रही है।

किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने देश भर की तमाम कृषि उत्पाद विपणन समितियों (APMC) को आपस में जोड़ कर इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफॉर्म ‘ई-राष्ट्रीय कृषि बाजार’ (c-NAM) का शुभारंभ किया है। इसी प्रकार भारत की विभिन्न सरकारों द्वारा मानसून पर कृषि की निर्भरता कम करने के लिये सिचाई अवसंरचना में निवेश को बढ़ावा दिया गया है। इससे फसल की पैदावार बढ़ाने में मदद मिलेगी और सूखे के कारण फसल बर्बाद होने का खतरा कम होगा। इस हेतु प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना और ‘पर ड्रॉप-मोर क्रॉप’ जैसी पहलों की शुरुआत की गई।

कृषि उत्पादन में सतत् वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिये किसानों को आधुनिक तकनीकों को अपनाने हेतु प्रेरित किया जा रहा है। इनमें उन्नत किस्म के बीजों, हरित खाद, आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) फसलों और नैनो-यूरिया का प्रयोग शामिल है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये किसानों को मोटे अनाजों (ज्वार, बाजरा और रागी आदि) को उपजाने की सलाह दी जाती है। मोटे अनाजों की इसी उपयोगिता के कारण भारत सरकार ने इन्हें ‘श्री अन्न’ की संज्ञा दी है। मृदा की उर्वरता शक्ति के पुनरुत्थान हेतु ‘मृदा स्वास्थ्य कार्ड’ लॉन्च किया गया था।

“किसान देश की आत्मा है, अगर किसान खुशहाल होगा, तो देश खुशहाल होगा।” – चौधरी चरण सिंह

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