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जिअते माछी नाहीं घोंटाई (70th BPSC Essay)
“जिअते माछी नाहीं घोंटाई” एक प्रसिद्ध लोकप्रचलित कहावत है, जो हमारे जीवन के एक अत्यंत गहरे सत्य को उजागर करती है। इस कहावत का अर्थ है कि जब कोई गलती या अन्याय हमारे सामने होता है, तो उसे अनदेखा करना बहुत कठिन हो जाता है। जैसे एक जीवित मछली को मारना कठिन होता है क्योंकि वह फड़फड़ाती रहती है, वैसे ही जब किसी घटना का साक्षी स्वयं व्यक्ति होता है, तो उसमें निष्क्रिय बने रहना स्वभाव के विरुद्ध होता है। यह कहावत हमारे स्वाभाविक मानवीय व्यवहार और नैतिक चेतना दोनों को दर्शाती है।
मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह सामने हो रही किसी गलती, अन्याय या अनुचित कार्य को देखकर चुप नहीं रह सकता। जब हम किसी को गलती करते देखते हैं, चाहे वह परिवार में हो, मित्रों के बीच हो या कार्यस्थल पर, तो स्वाभाविक रूप से हमारे भीतर उसे सुधारने या विरोध करने की भावना जागृत होती है। यदि कोई माता-पिता अपने बच्चों को गलत रास्ते पर चलते देखें तो वे उन्हें तुरंत टोकते हैं। यदि कोई शिक्षक छात्र को अनुचित कार्य करते देखे तो वह उसे सही रास्ता दिखाने का प्रयास करता है। यह मनुष्य की नैतिक जिम्मेदारी का हिस्सा है कि वह अपने सामने घटने वाले अन्याय या त्रुटियों के प्रति सजग रहे और यथासंभव उसे सुधारने का प्रयास करे।
यह कहावत हमारे निजी जीवन में भी कई बार चरितार्थ होती है। परिवार के भीतर यदि कोई सदस्य अनुचित व्यवहार करे या सामाजिक नियमों का उल्लंघन करे, तो उसे अनदेखा करना आसान नहीं होता। चाहे वह छोटा बच्चा हो या कोई वरिष्ठ सदस्य, यदि हम उसकी गलती को अनदेखा कर दें, तो धीरे-धीरे वह गलती बड़ी समस्या बन सकती है। इसलिए सही समय पर हस्तक्षेप करना, मार्गदर्शन देना और आवश्यक सुधार करना एक आवश्यक दायित्व बन जाता है। इसी प्रकार मित्रों के साथ भी जब हम गलत व्यवहार देखते हैं, तो एक सच्चे मित्र का कर्तव्य बनता है कि वह समय रहते सलाह दे, न कि चुप्पी साध ले।
कार्यक्षेत्र में भी “जिअते माछी नाहीं घोंटाई” का सिद्धांत अत्यंत प्रासंगिक है। एक अच्छा नेतृत्वकर्ता वही होता है जो सामने हो रही त्रुटियों को समय रहते पहचानकर उनका समाधान करे। यदि कार्यस्थल पर किसी कर्मचारी द्वारा की जा रही गलतियों को नजरअंदाज कर दिया जाए, तो इससे न केवल कार्यक्षमता प्रभावित होती है, बल्कि पूरी संस्था के वातावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी है कि वह सामने हो रही समस्याओं का समाधान तत्परता से करे। यदि सामने की मछली को अनदेखा किया जाए, तो वह पूरे तालाब को गंदा कर सकती है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी इस कहावत का विशेष महत्व है। शिक्षक न केवल ज्ञान का प्रदाता होता है, बल्कि छात्रों के चरित्र निर्माण का भी दायित्व निभाता है। यदि वह छात्रों की अनुशासनहीनता, लापरवाही या अव्यवस्थित व्यवहार को देखकर भी चुप्पी साध ले, तो भविष्य में वही विद्यार्थी समाज के लिए चुनौती बन सकते हैं। एक शिक्षक का कार्य है कि वह समय पर छात्रों की गलतियों को पहचानकर उन्हें सुधार का अवसर दे। इस प्रकार, “जिअते माछी नाहीं घोंटाई” शिक्षक के कार्य का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है।
समाज और राष्ट्र के स्तर पर भी यह कहावत उतनी ही सटीक बैठती है। जब समाज में भ्रष्टाचार, अन्याय, हिंसा, और अनैतिकता के दृश्य हमारे सामने आते हैं, तो एक सजग नागरिक का कर्तव्य बनता है कि वह अपनी भूमिका निभाए। यदि हर नागरिक अपने आसपास के अन्याय को देखकर भी चुप्पी साध ले, तो पूरा समाज अव्यवस्था और अराजकता की ओर बढ़ सकता है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने इसी भावना के तहत अन्याय और दमन का प्रतिकार किया। वे जानते थे कि सामने हो रहे अन्याय को अनदेखा करना, उसे मौन स्वीकृति देना होता है। इसलिए उन्होंने अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए इतिहास रच दिया। आज भी हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और सामाजिक अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए।
हालाँकि यह भी सही है कि हर छोटी गलती पर प्रतिक्रिया करना भी उचित नहीं होता। विवेकपूर्ण निर्णय लेना आवश्यक है कि किस त्रुटि को क्षमा कर देना चाहिए और किस पर तत्काल प्रतिक्रिया देनी चाहिए। कभी-कभी छोटी गलतियों को नजरअंदाज करना रिश्तों को मजबूत बना सकता है, वहीं गंभीर गलतियों को अनदेखा करना घातक सिद्ध हो सकता है। इसलिए धैर्य, समझदारी और सही समय का चयन आवश्यक है। मनुष्य को परिस्थिति के अनुसार आचरण करना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि कब बोलना है और कब चुप रहना है।
यह कहावत हमें आत्मनिरीक्षण की भी प्रेरणा देती है। केवल दूसरों की गलतियों को देखना ही नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर झांककर अपनी त्रुटियों को पहचानना और उन्हें सुधारना भी आवश्यक है। यदि हम अपनी गलतियों को जानबूझकर नजरअंदाज करते हैं, तो हमारा व्यक्तिगत विकास रुक जाता है। एक सफल जीवन वही होता है जिसमें व्यक्ति अपनी कमजोरियों को स्वीकार कर उन्हें दूर करने का प्रयास करे। इसीलिए “जिअते माछी नाहीं घोंटाई” हमें अपने भीतर भी सजगता रखने का संदेश देती है।
आज के समय में जब सूचनाओं का प्रवाह तीव्र है और समाज तेजी से बदल रहा है, ऐसे में सजगता और सक्रियता और भी महत्वपूर्ण हो गई है। सोशल मीडिया, समाचार पत्र और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के जरिए हमारे सामने अनेक घटनाएँ घटती हैं। यदि हम फर्जी खबरों, अफवाहों, या किसी अन्यायपूर्ण घटना को देखकर भी निष्क्रिय बने रहें, तो हम भी उस अन्याय के भागीदार बन जाते हैं। इसलिए आज के युग में जागरूक नागरिक बनना और सामने हो रही गलतियों के प्रति संवेदनशील रहना अनिवार्य हो गया है।
“जिअते माछी नाहीं घोंटाई” जीवन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो हमें सिखाता है कि जहां आवश्यक हो वहां चुप्पी तोड़नी चाहिए और जहां आवश्यक हो वहां क्षमा भाव अपनाना चाहिए। जीवन में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। हमें सजग रहते हुए गलतियों को पहचानना, विवेक से निर्णय लेना और साहसपूर्वक सुधार करना चाहिए। तभी हम एक सच्चे नागरिक, एक आदर्श मित्र, एक जिम्मेदार परिवारजन और एक सफल व्यक्तित्व बन सकते हैं। यह कहावत केवल शब्दों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे आचरण में लाना ही इसका सच्चा सम्मान है।
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