साहित्य ज्ञान का केवल एक स्रोत ही नहीं है, साथ ही वह नैतिक और सामाजिक क्रिया का भी एक रूप है। (Literature is not only a source of knowledge, but also a form of moral and social activity.)

साहित्य ज्ञान का केवल एक स्रोत ही नहीं है, साथ ही वह नैतिक और सामाजिक क्रिया का भी एक रूप है। (68th BPSC Essay)

साहित्य केवल मनोरंजन या ज्ञान प्राप्ति का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज का दर्पण भी है, जो नैतिकता और सामाजिक परिवर्तन की दिशा में प्रभावी भूमिका निभाता है। साहित्य न केवल जीवन की सच्चाइयों को उजागर करता है, बल्कि समाज को दिशा देने, नैतिक मूल्यों को स्थापित करने और सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाने का कार्य भी करता है। यह व्यक्ति को जागरूक करता है, उसे आत्मविश्लेषण करने की प्रेरणा देता है और समाज को एक नई दिशा प्रदान करता है। साहित्य का प्रभाव केवल व्यक्तिगत ज्ञान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह पूरे समाज को एक नैतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बदलने की शक्ति रखता है।

साहित्य का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान का संवर्धन करना है। यह मानव इतिहास, संस्कृति, परंपराओं और जीवन के विविध पहलुओं को संरक्षित करता है। साहित्यिक कृतियाँ हमें अतीत की घटनाओं से अवगत कराती हैं और भविष्य के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करती हैं। साहित्य केवल सूचनाएँ देने का कार्य नहीं करता, बल्कि यह अनुभवों को साझा करने और सीखने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है। महाभारत, रामायण, पंचतंत्र, हितोपदेश जैसी रचनाएँ केवल धार्मिक या नैतिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि इनमें गहन जीवन दर्शन और व्यवहारिक ज्ञान समाहित है। ये ग्रंथ हमें जीवन की जटिलताओं से परिचित कराते हैं और सही दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।

इसके अतिरिक्त, साहित्य वैज्ञानिक और दार्शनिक ज्ञान का भी स्रोत है। प्लेटो, अरस्तू, कालिदास, बाणभट्ट, तुलसीदास, कबीर, निराला, प्रेमचंद, टैगोर, शरतचंद्र जैसे लेखकों ने अपने साहित्य में ज्ञान का समावेश किया। प्रेमचंद का साहित्य हमें ग्रामीण भारत की वास्तविकता से परिचित कराता है, वहीं शरतचंद्र का साहित्य नारी मनोविज्ञान को समझने में सहायक होता है।

साहित्य हमें जीवन में नैतिकता का पाठ पढ़ाता है। यह हमें अच्छे और बुरे का अंतर समझने में मदद करता है तथा समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करता है। साहित्य में सद्गुणों का समावेश होता है, जो व्यक्ति को नैतिक रूप से सुदृढ़ बनाता है। महादेवी वर्मा, तुलसीदास, कबीर, पंत और दिनकर जैसे साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से नैतिकता का प्रचार किया।

महात्मा गांधी ने भी साहित्य के नैतिक पक्ष को पहचाना और ‘हरिजन’ पत्र के माध्यम से समाज में नैतिकता और सद्भावना का प्रचार किया। साहित्य न केवल हमें सही और गलत की पहचान कराता है, बल्कि यह हमें जीवन में ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और मानवता जैसे गुणों को अपनाने की प्रेरणा भी देता है।

प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध ने कहा है –
“अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे,
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।”

यह कथन दर्शाता है कि साहित्य हमें अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देता है।

साहित्य समाज का आईना होता है। यह समाज में व्याप्त बुराइयों को उजागर कर उन्हें सुधारने की प्रेरणा देता है। साहित्य में समाज की विभिन्न परंपराओं, रीति-रिवाजों, संघर्षों और क्रांतियों को चित्रित किया गया है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी साहित्य ने समाज को जागरूक करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर, भगत सिंह, और अन्य लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम की भावना को बल दिया। दिनकर की कविताएँ समाज को क्रांति के लिए प्रेरित करती हैं, वहीं प्रेमचंद के उपन्यास समाज में व्याप्त शोषण और अन्याय को उजागर करते हैं।

महिला सशक्तिकरण की दिशा में भी साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम, शिवानी जैसी लेखिकाओं ने समाज में महिलाओं की वास्तविक स्थिति को उजागर किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।

साहित्य केवल समाज को दर्शाने का कार्य नहीं करता, बल्कि यह समाज को प्रभावित करने और बदलने की क्षमता भी रखता है। साहित्य समाज में हो रहे अन्याय, शोषण और असमानता के खिलाफ आवाज उठाने का सशक्त माध्यम है। साहित्यकारों ने सदैव समाज में हो रहे बदलावों को अपने लेखन में स्थान दिया है और समय के साथ नई सामाजिक धारणाएँ प्रस्तुत की हैं।

महादेवी वर्मा ने अपने साहित्य में नारी चेतना को जागरूक किया, तो वहीं दिनकर की कविताएँ सामाजिक क्रांति की प्रेरणा बनीं। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गोदान’ में किसान जीवन की पीड़ा को दर्शाया है, जो समाज में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असमानता को उजागर करता है।

राजतंत्र के समय जब कोई राजा को उसके कर्तव्यों का स्मरण नहीं करा सकता था, तब साहित्य ही राजा को सही दिशा दिखाने का कार्य करता था। प्रसिद्ध कवि बिहारी ने राजा को यह दोहा लिखकर भेजा था –
“नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल,
अली कली ही सौं बंध्यौ, आगे कौन हवाल।”

साहित्य केवल ज्ञान का स्रोत नहीं है, बल्कि यह समाज के नैतिक और सामाजिक सुधार का साधन भी है। यह हमें अतीत से जोड़ता है, वर्तमान को समझने में मदद करता है और भविष्य के लिए दिशा निर्देश देता है। साहित्य में समाज को बदलने की शक्ति होती है, और इसी कारण यह केवल मनोरंजन का साधन न होकर सामाजिक और नैतिक क्रांति का महत्वपूर्ण उपकरण भी है।

साहित्य व्यक्ति को आत्ममंथन करने, समाज को पहचानने और उसे सुधारने का अवसर प्रदान करता है। यह न केवल समाज को प्रतिबिंबित करता है, बल्कि समाज में परिवर्तन भी लाता है। साहित्य और समाज एक-दूसरे के पूरक हैं और दोनों की प्रगति एक-दूसरे पर निर्भर करती है।

प्रेमचंद ने अपने निबंध ‘साहित्य का उद्देश्य’ में कहा है –
“साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवाय उसका और भी उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग-वियोग की कहानी नहीं सुनाता; किंतु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल करता है।”

अतः साहित्य न केवल ज्ञान का स्रोत है, बल्कि यह समाज में नैतिकता और सामाजिक क्रिया का भी एक रूप है। यह हमारे जीवन को दिशा देता है, समाज को जागरूक करता है और सामाजिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साहित्य से प्रेरणा लेकर हम अपने समाज को अधिक विकसित, नैतिक और समानता पर आधारित बना सकते हैं।

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