मूस मोटइहें, लोढ़ा होइहें, ना हाथी, ना घोड़ा होइहें (Moos Motaihen, Lodha Hoihen, Na Hathi, Na Ghora Hoihen)

मूस मोटइहें, लोढ़ा होइहें, ना हाथी, ना घोड़ा होइहें (68th BPSC Essay)

भारतीय समाज में लोक कथाएँ और लोकोक्तियाँ केवल शब्दों का संकलन नहीं होतीं, बल्कि वे समाज की मानसिकता, परंपराओं और सोच को प्रतिबिंबित करती हैं। बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित यह लोकोक्ति—“मूस मोटइहें, लोढ़ा होइहें, ना हाथी, ना घोड़ा होइहें”—सामाजिक असमानता और वर्गभेद की ओर इशारा करती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि एक चूहा चाहे कितना भी बड़ा हो जाए, वह हाथी या घोड़ा नहीं बन सकता। इसका निहितार्थ यह है कि निम्न वर्ग का व्यक्ति कितना भी प्रयास कर ले, वह उच्च वर्ग का हिस्सा नहीं बन सकता। यह सोच यह दर्शाती है कि व्यक्ति की स्थिति पूर्वनिर्धारित होती है और उसमें कोई बड़ा बदलाव संभव नहीं है।

हालांकि, यह धारणा वास्तविकता से परे है। इतिहास हमें बताता है कि व्यक्ति की नियति उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से तय होती है। अगर केवल परिस्थितियाँ ही सफलता को निर्धारित करतीं, तो समाज में कई बदलाव कभी नहीं होते। कर्म ही जीवन का सार है, जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है—

“कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करे, सो तस फल चाखा।।”

अर्थात, संसार में कर्म ही सबसे महत्वपूर्ण है, और व्यक्ति को उसी के अनुसार फल प्राप्त होता है। कई उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं कि जन्म या परिस्थितियाँ किसी के भविष्य को सीमित नहीं कर सकतीं। उदाहरण के लिए, महाकवि कालिदास को बचपन में मूर्ख समझा जाता था, लेकिन उन्होंने अपनी कठोर मेहनत से संस्कृत साहित्य में अमूल्य योगदान दिया। यदि वे यह मान लेते कि उनकी सीमाएँ निर्धारित हैं, तो वे कभी भी ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’ जैसी कालजयी रचना नहीं कर पाते। इसी प्रकार, डॉ. भीमराव अंबेडकर एक दलित परिवार में जन्मे थे, लेकिन अपनी विद्वत्ता, संघर्ष और शिक्षा के बल पर वे भारत के संविधान निर्माता बने। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सामाजिक सीमाएँ किसी की योग्यता को बाधित नहीं कर सकतीं।

भारत का स्वतंत्रता संग्राम भी इस तथ्य को पुष्ट करता है कि कठिन परिस्थितियों के बावजूद लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। 1857 की क्रांति में भले ही भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को असफलता मिली, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके सतत प्रयासों से 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ। यदि स्वतंत्रता सेनानी यह सोचते कि अंग्रेजों की शक्ति के सामने वे कुछ नहीं कर सकते, तो आज भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं होता। गांधीजी ने कहा था—

“पहले वे आप पर ध्यान नहीं देंगे, फिर वे आप पर हंसेंगे, फिर वे आपसे लड़ेंगे, और फिर आप जीत जाएंगे।”

तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि व्यक्ति या समाज अपनी सीमाओं को पार कर सकता है। जब डॉ. होमी जहांगीर भाभा ने भारत के परमाणु कार्यक्रम की नींव रखी, तब संसाधनों की भारी कमी थी। यदि उन्होंने यह सोच लिया होता कि भारत कभी परमाणु शक्ति संपन्न नहीं हो सकता, तो शायद यह उपलब्धि असंभव रह जाती। इसी प्रकार, इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) ने 2017 में एक साथ 104 उपग्रहों को प्रक्षेपित कर दुनिया को अपनी वैज्ञानिक क्षमता का परिचय दिया। यदि इसरो वैज्ञानिक सिर्फ संसाधनों की कमी के बारे में सोचते, तो यह सफलता कभी संभव नहीं होती। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था—

“सपने वो नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं, सपने वो होते हैं जो हमें सोने नहीं देते।”

आज का समाज पहले की तुलना में अधिक लोकतांत्रिक और अवसरों से भरा हुआ है। अब किसी भी व्यक्ति को अपने जन्म, जाति, वर्ग या आर्थिक स्थिति से बंधे रहने की आवश्यकता नहीं है। खेल के क्षेत्र में पी. वी. सिंधु, जो एक साधारण परिवार से थीं, ने ओलंपिक में भारत का नाम रोशन किया। यदि वे यह सोचतीं कि “हम तो सामान्य परिवार से हैं, हम विश्व स्तर पर सफल नहीं हो सकते,” तो क्या वे ओलंपिक पदक जीत पातीं? इसी प्रकार, धीरूभाई अंबानी एक मामूली पृष्ठभूमि से आए थे, लेकिन अपनी मेहनत से रिलायंस जैसी विशाल कंपनी खड़ी कर दी। यदि उन्होंने इस कहावत को सही मान लिया होता, तो क्या वे कभी सफलता प्राप्त कर पाते?

महान संत कबीरदास ने इस संदर्भ में कहा था—

“करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निशान।।”

अर्थात, निरंतर अभ्यास से मूर्ख भी बुद्धिमान बन सकता है, जैसे कुएँ की रस्सी के बार-बार खींचने से पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रयास ही सफलता की कुंजी है।

इस लोकोक्ति का पारंपरिक अर्थ भले ही यह संकेत देता हो कि व्यक्ति अपनी नियति को नहीं बदल सकता, लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। यह सच है कि हर कोई हाथी या घोड़ा नहीं बन सकता, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि हर किसी को अपनी पहचान बनाने का अवसर मिलना चाहिए। यदि हम केवल भाग्य और जन्म को ही सब कुछ मान लें, तो प्रगति की कोई संभावना नहीं बचेगी। स्वामी विवेकानंद ने कहा था—

“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।”

अतः हमें इस कहावत को पूरी तरह स्वीकार करने के बजाय इसे चुनौती देनी चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि मेहनत, लगन और संकल्प के बल पर हर व्यक्ति अपनी पहचान बना सकता है। कर्म और संघर्ष ही सच्ची सफलता की कुंजी हैं।

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