भूमि संरक्षण और जैविक खेती / Soil Conservation and Organic Farming

भूमि संरक्षण और जैविक खेती (70th BPSC Essay)

प्रकृति ने हमें अनेक अमूल्य उपहार दिए हैं, जिनमें भूमि सबसे महत्वपूर्ण है। भूमि न केवल हमारी आजीविका का आधार है, बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का मूल भी है। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गई और औद्योगिकीकरण का प्रभाव बढ़ा, वैसे-वैसे भूमि का दोहन भी बढ़ता गया। आज भूमि क्षरण, कटाव, प्रदूषण जैसी समस्याएँ गंभीर रूप धारण कर चुकी हैं। ऐसे में भूमि संरक्षण और जैविक खेती का महत्व पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है।

भूमि संरक्षण का तात्पर्य भूमि की गुणवत्ता और उत्पादकता को बनाए रखने तथा उसे क्षय से बचाने से है। यह एक ऐसा प्रयास है जो भूमि को क्षरण, कटाव, रासायनिक प्रदूषण और अति दोहन से सुरक्षित रखने का कार्य करता है। भूमि संरक्षण की विभिन्न विधियाँ हैं जैसे वृक्षारोपण, ढलानों पर घास लगाना, वर्षा जल संचयन, प्राकृतिक बांध बनाना, फसल चक्र अपनाना और सतत कृषि प्रणाली का विकास करना। यदि हम समय रहते भूमि संरक्षण के उपाय नहीं अपनाते, तो भविष्य में खाद्यान्न संकट जैसी विकट समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।

भूमि संरक्षण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू जैविक खेती से जुड़ा है। जैविक खेती, यानी प्राकृतिक संसाधनों के सहारे कृषि करना, जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों या संश्लेषित रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता। इसमें खाद, गोबर, वर्मी कम्पोस्ट, नीम तेल, हरी खाद जैसी प्राकृतिक विधियों से भूमि को उपजाऊ बनाया जाता है। जैविक खेती केवल खाद्यान्न उत्पादन का तरीका नहीं है, बल्कि यह भूमि, जल, वायु और जीवों के संरक्षण की एक समग्र पद्धति है।

भूमि संरक्षण और जैविक खेती का परस्पर संबंध अत्यंत घनिष्ठ है। रासायनिक खेती के अधिक प्रयोग से भूमि की उर्वरता कम होती जा रही है, मिट्टी की प्राकृतिक संरचना नष्ट हो रही है और भूमिगत जल भी दूषित हो रहा है। इसके विपरीत, जैविक खेती से मिट्टी की जैविक गतिविधियाँ बढ़ती हैं, मृदा संरचना सुधरती है, और भूमि में जलधारण क्षमता बढ़ती है। इससे भूमि का दीर्घकालिक संरक्षण संभव होता है।

आज जब भूमंडलीकरण और औद्योगिकीकरण के प्रभाव से पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ पीछे छूट रही हैं, जैविक खेती एक नई उम्मीद बनकर उभरी है। यह खेती न केवल पर्यावरण हितैषी है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी किसानों के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकती है। जैविक उत्पादों की बाजार में उच्च मांग है, और इनसे किसानों को बेहतर मूल्य मिल सकता है। इसके साथ ही, जैविक उत्पाद स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत लाभकारी होते हैं, क्योंकि इनमें हानिकारक रसायनों का कोई अंश नहीं होता।

महात्मा गांधी ने कहा था, “प्रकृति हर किसी की आवश्यकता पूरी कर सकती है, लेकिन लालच नहीं।” यह कथन आज के संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो जाता है। भूमि संरक्षण और जैविक खेती के माध्यम से हम प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर अपनी आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं, न कि उसे अनावश्यक रूप से दोह कर।

भारत में सदियों से कृषि जीवनशैली का हिस्सा रही है। परंपरागत किसान बिना रसायनों के भी ऊंची उपज प्राप्त करते थे। वे प्राकृतिक खादों, जल संचयन प्रणालियों और मिश्रित खेती के माध्यम से भूमि की उर्वरता बनाए रखते थे। किंतु हरित क्रांति के बाद अत्यधिक रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग ने भूमि के स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाई। भूमि की ऊपरी सतह, जिसे ‘टॉप सॉयल’ कहते हैं, तेजी से नष्ट हो रही है। यह सतह सबसे उपजाऊ होती है और इसके नष्ट होने से भूमि बंजर बन जाती है।

भूमि संरक्षण के लिए आज सतत कृषि प्रणालियों को अपनाना अनिवार्य हो गया है। मल्चिंग, टपक सिंचाई, जैविक खादों का प्रयोग, फसल चक्र और मिश्रित खेती जैसी विधियाँ भूमि को संरक्षित करने में सहायक हैं। इसके अतिरिक्त, किसानों को भूमि संरक्षण से जुड़े प्रशिक्षण कार्यक्रमों से जोड़ना भी आवश्यक है ताकि वे नई तकनीकों को अपनाकर अपनी भूमि को बचा सकें।

जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार भी विभिन्न योजनाएँ चला रही है जैसे ‘परंपरागत कृषि विकास योजना’ (PKVY) और ‘राष्ट्रीय जैविक खेती मिशन’। इनके माध्यम से किसानों को प्रशिक्षण, आर्थिक सहायता और विपणन सुविधाएँ दी जा रही हैं। हाल के वर्षों में कई राज्यों ने जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए जैविक कृषि क्षेत्र घोषित किए हैं। सिक्किम तो पूरी तरह जैविक राज्य बन चुका है, जो अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा स्रोत है।

जैविक खेती केवल किसानों तक सीमित नहीं है, बल्कि उपभोक्ताओं और समाज की भी इसमें अहम भूमिका है। यदि उपभोक्ता जैविक उत्पादों को प्राथमिकता देंगे, तो किसान भी जैविक खेती की ओर प्रेरित होंगे। इसके अतिरिक्त, शहरी क्षेत्रों में भी ‘अर्बन फार्मिंग’ या ‘रूफटॉप गार्डनिंग’ जैसे प्रयास भूमि संरक्षण और जैविक उत्पादन को बढ़ावा देने में सहायक हो सकते हैं।

भूमि संरक्षण और जैविक खेती के लाभ केवल आर्थिक या पारिस्थितिकीय नहीं हैं, बल्कि यह भावनात्मक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। भूमि केवल एक संसाधन नहीं है, वह हमारी सांस्कृतिक पहचान का भी आधार है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में भूमि का संरक्षण करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी भी है।

जैविक खेती और भूमि संरक्षण का रास्ता कठिन अवश्य है, लेकिन असंभव नहीं। आवश्यकता है सामूहिक प्रयासों की, जनजागरूकता की और दृढ़ संकल्प की। हमें आधुनिक तकनीक और पारंपरिक ज्ञान के संतुलित समन्वय से एक ऐसा कृषि मॉडल बनाना होगा जो पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए आर्थिक उन्नति भी सुनिश्चित करे।

अंततः, यदि हमें आने वाली पीढ़ियों के लिए हरित, उपजाऊ और समृद्ध धरती छोड़नी है, तो भूमि संरक्षण और जैविक खेती को अपनाना ही होगा। जैसा कि एक प्रसिद्ध कहावत है, “हम पृथ्वी से विरासत में नहीं पाए हैं, बल्कि अपने बच्चों से उधार ली है।” इस भावना को आत्मसात कर हम प्रकृति और मानवता दोनों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं।

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